Wednesday 20 December 2017

गुजरात के चुनावी तोलकाटे पर महाराष्ट्र !

गुजरात विधानसभा चुनाव के नतिजे सामने आए है ।गुजरात पर २२ साल से सत्ता बनाये भाजपा को गुजरात के मतदाताओंने फिरसे ५ साल सत्ता चलाने का विकल्प चुना है । गुजरात के जीत के साथ देश के उपरी हिस्सेवाले हिमाचल प्रदेश की विधानसभा भाजपाने काँग्रेस के हाथों छीन ली है । गुजरात में भाजपाके अल्प संख्यात्मक विजय की चर्चा कई मुद्दे लेकर जैसे गर्मा रही है वैसे दुसरी ओर हिमाचल प्रदेश में काँग्रेस के पराजय की बात पर सभी राजकीय विश्लेषक मौन धारण कर बैठे है ।

भाजपा की अल्प मार्जिन वाली जीत

गुजरात विधानसभा में कूल सींटे १८२ है । सत्ता प्राप्ती के हेतू साधारण बहुमत ९२ सीटों से प्राप्त होता है । भाजपाने कूल ९९ सींटे जीत कर २२ साल से चल रही सत्ता को कॅरीऑन किया है । भाजपा के इस जीत को सिहासी जीत के बजाए तांत्रिक जीत माना जा रहा है । इसका कारण यह है की, काँग्रेस का पराजय जीन १६ सींटोंपर हुआ वही पर भाजप की जीत के लिए व्होटों का मार्जिन मात्र २५० से लेकर ३००० तक है । अगर गुजरात में काँग्रेस का संघटन मतदान बूथ स्तर तक विस्तारित होता, तो चुनाव परिणाम चौकानेवाले आ सकते थे ।

नाटो अधिकार का प्रयोग

चुनाव नतीजों का दुसरा विश्लेषणात्मक पक्ष यह भी है की, गुजरात के ५ लाख से उपर मतदाताओंने इस चुनाव में नाटो (नॉट टू व्हाट) अधिकार का प्रयोग कर भाजपा के उमीदवारों को नकारा जरुर है किंतु उनके विपक्षी काँग्रेसी उमीदवारों को स्वीकार नही किया है । इसका अर्थ यही है की, गुजराती मतदार भाजपा से नाराजगी का प्रदर्शन कर रहा है किंतु भाजपा विरोधी पर्याय उसे स्वीकृत नही है । यह लोकशाही व्यवस्था में चुनावी नतीजों का विडंबन ही तो है । मतदाता सरकारे से खुश नहीं, सत्ता पक्ष को व्होट नहीं और विरोधी पर्याय मतदाताओं को स्वीकृत नहीं ।

महाराष्ट्र पर कैसा असर ?

खैर हमारी चर्चा का विषय गुजरात के चुनावी नतीजों के पश्चात महाराष्ट्र विधानसभा के आगामी चुनाव पर क्या असर हो सकता है इसे टटोलना और खंगालना है । गुजरात की सीमा से सटीक महाराष्ट्र है । गुजरात से महाराष्ट्र के कारोबारी, उद्योग, व्यावसायिक और सांस्कृतिक संबध गहरे है । विकास के आलेख पर हमेशा गुजरात और महाराष्ट्र का तौलनिक अभ्यास और बहस होती रही है । मानों विकास की राजनीति में गुजरात और महाराष्ट्र हमेशा स्पर्धक बने है । इसी कारण से गुजरात चुनाव का परिणाम महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव पर संभवता क्या असर कर सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में वास्तव और व्यावहारिक चर्चा जरुरी है ।

द्वि पक्ष राजनीति का प्रारंभ ?

गुजरात के चुनाव में भारतीय राजकारण को केवल द्वि पक्ष राजनिती में विभाजित किया है । गुजरात में स्थानिय संघटन या राजकीय पार्टीओं का अस्तित्व इस चुनाव में लगभग खारिज हो गया । सत्ता में बनी भाजपा के सामने काँग्रेस प्रमुख विरोधी पार्टी के रुप में उभर कर आयी है । भाजपा के साथ किसी स्थानिय संघटन का गठबंधन नहीं  था वैसे ही काँग्रेस के साथ बाहर से जुडे पाटीदार, ओबीसी और दलित नेताओं ने काँग्रेस के चिन्ह पर चुनाव लढने का विकल्प चुना । इसके पश्चात गुजरात में तिसरा विकल्प बना ही नही । इसका सरल अर्थ यही है की, खुद को तिसरी शक्ति माननेवाले जनता दल या अन्य सामाजिक विचारधाराओं वाली पार्टीओं ने भाजपा बनाम काँग्रेस के लढाई में खुद को बाहर कर दिया था।

तिसरा पर्याय किनारा कर गया

भारत में पाँच दशक से केंद्रस्तर के राजकारण में विभिन्न राज्यस्तर संघटन वा पार्टीओं के गठबंधन का पर्याय राष्ट्रीय पार्टीओं को स्वीकृत करना पड रहा है । स्थानिय पार्टीओं के नेता दिल्ली की सरकार में अपना प्रभाव और अस्तित्व बना रहे है और राज्यस्तर की सत्ता में युती वा आघाडी स्वरुप हिस्सेदारी बना रहे है । इस गठबंधन परंपरा को गुजरात के चुनाव में किनारा कर दिया है ।

महाराष्ट्र में स्थानिय पार्टीयां


किंतु महाराष्ट्र विधानसभा के आगामी चुनाव में स्थानिय पार्टीओं का अस्तित्व या तो उभर कर आएगा या फिर उन पार्टीओं का प्रभाव नेस्त नाबूत होगा । महाराष्ट्र में राष्ट्रीय पार्टी के रुप में भाजपा और काँग्रेस का अस्तित्व पूर्वापार है। स्थानिय पार्टीओं के रुप में शिवसेना और राष्ट्रवादी काँग्रेस अपना प्रभाव बनाए है । राज्य की भाजपा नेतृत्ववाली सत्ता में शिवसेना युती स्वरुप हिस्सेदार है और विरोधी दल की राजनीति में काँग्रेस के साथ राष्ट्रवादी काँग्रेस आघाडी स्वरुप हिस्सेदार है । महाराष्ट्र में दलित समाज के नेताओं के नेतृत्व में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया भी कई तुकडों के स्वरुप अस्तित्व में है । महाराष्ट्र की राजनीती में ओबीसी समाज के संघटन के कई स्थानिय संघटन कार्यरत है और उनके नेता जिलास्तर राजकारण से लेकर राज्य तथा केंद्र की सरकार में हिस्सेदारी का दावा करते है ।

आरक्षण आंदोलन को चेहरा नही

गुजरात के चुनाव का तोलकाटा इस कारण महाराष्ट्र के आगामी चुनाव के लिऐ उपयुक्त नही है । क्योंकि गुजरात में भाजपा विरोध के लिए अन्य स्थानिय नेता या आंदोलक हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर ने काँग्रेस का खुलकर साथ दिया । अल्पेश ने काँग्रेस का उमीदवार होकर विजयी हुआ और जिग्नेशने अपक्ष रह कर चुनाव जिता । महाराष्ट्र में स्थानिय नेताओं के पार्टी या संघटन का अस्तित्व अपने स्वतंत्र विचारधारा और नेताओं के व्यक्तिगत अहंकार पर केंद्रीभूत है। इसलिए महाराष्ट्र में द्वि पक्ष चुनाव की संभावना हो ही नही सकती । महाराष्ट्र का राजनैतिक फार्म्युला युती या आघाडी का है । इस पद्धति से चुनावी सींटो का संख्यात्मक बटवारा हो जाता है, मात्र चुनाव जितने के लिए परस्पर सहयोग पर विश्वास बन नही पाता । युती या आघाडी होने के बावजूद किसी अन्य उमीदवार को युती या आघाडीसे अदृश्य समर्थन दिए जाने के प्रयास भी होते है । इस प्रकार के अनुभव भूतपूर्व चुनावों मे कई बार आए है ।

काँग्रेस के सहयोगी बनकर लढाई

गुजरात में बहुजन संख्यावाले पाटीदार समाज के आरक्षण का मुद्दा चुनाव के प्रारंभ में गर्माया था । पाटीदार समाज खुद को लोहपुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल का वंशज मानता है । पाटीदार समाज के आरक्षण आंदोलन के चलते हार्दिक पटेल का नेतृत्व उभरा । आंदोलन का चेहरा स्पष्ट रुपसे हार्दिक है । हार्दिक के समर्थन में पाटीदार समाज संघटीत हुआ । इसलिए हार्दिकने काँग्रेस के जीत के लिए खुलकर व्होट मांगा। इसके परिणाम स्वरुप काँग्रेस को कई सींटो परा जीत हासिल हुई । महाराष्ट्र में बहुचर्चित बहुजन समाज मराठा है । मराठा समाज खुद को छत्रपती शिवाजी महाराज का वंशज मानता है। मात्र मराठा समाज पूर्वापार कई मराठा नेताओं के नेतृत्व में बट चुका हे। मराठा आरक्षण का आंदोलन महाराष्ट्र में जोर शोर से हुआ । परंतु इस आंदोलन के नेतृत्व का चेहरा कोई एक व्यक्ति या नेता नही । मराठा आंदोलन का नेतृत्व सामुदायिक रखने का प्रयास किया गया । इससे दोष यह उत्पन्न हुआ की सामुहिक नेतृत्व को विभाजित करना सत्ता पक्ष को शक्य प्राय हो गया । मराठा आरक्षण आंदोलन की संख्यात्मक भीड का उपयोग प्रस्थापित राजकीय पार्टीओं ने अपने स्वार्थ के लिए किया । खेद यही है की, मराठा आंदोलन में भाजपा, शिवसेना, काँग्रेस और राष्ट्रवादी काँग्रेस ने अपनी अपनी हिस्सेदारी तय कर ली । परिणाम यही हुआ के मराठा आंदोलन का सामुदायिक नेतृत्व विभाजन के कगार पर खडा हुआ ।

ओबीसी, दलित नेताओं की दुकानदारी


महाराष्ट्र में पिछडे वर्ग के धनगर समाज, अल्पसंख्याक मुस्लिम समाज और ओबीसी समाज के आरक्षण का मुद्दा भी बहुचर्चित है। मात्र, इन सभी समाज के नेतृत्व का स्वरुप कई नेताओं के अपने निजी स्वार्थ के दुकानदारी का है । विभिन्न नेता आरक्षण की मांग लेकर अपना अलग थलग संघटन चला रहे है । आरक्षण की मांग को राजनीतिक अजेंडा बना कर राजसत्ता में अपनी व्यक्तिगत हिस्सेदारी का लाभ लेने का प्रयास कर रहे है। इसका फल स्वरुप परिणाम यही है की, जाती- जमाती संघटन से कोई भी विधानसभा चुनाव जीत नही पाया, फिर भी सत्ता की हिस्सेदारी में मंत्रिपरिषद का सदस्य बनाया गया है । इस प्रकार के नेतृत्व को विधान परिषद सदस्यता के लिए व्यक्तिगत तौर पर लाचारी जताना पड रही है । आरक्षण मांगनेवाले हर एक समाज के नेताओं की यही शोकांतिका बनी है ।

समाज का केवल उपयोग

महाराष्ट्र की जनसंख्या में  मराठा समाज ३४ फीसदी है । शिक्षा और सरकारी नौकरी में मराठा समाज को १६ फिसदी आरक्षण की मांग है । राज्य की कुल २८८ विधानसभा सीटों में से करीब १०० से ज्यादा सीटों पर संघटित मराठा सीधे असर डाल सकते है । परंतु मराठा आरक्षण आंदोलन अपना कोई चेहरा निश्चित नही कर पाया है । गुजरात की जनसंख्या में पाटीदार समाज १२ फिसदी है । राज्य की कूल १८२ सींटो में पाटीदार समाज ने ५२ सींटोपर सीधा असर किया है । चुनाव पश्चात इन सींटों मे से भाजपाने २८ और हार्दिक पटेल समर्थित काँग्रेस ने २३ सीटोंपर विजय प्राप्त की है । आरक्षण मांग के अनुकूल पाटीदार समाज काँग्रेस के पिछे एकसंध खडा है । वैसे ही ओबीसी नेता अल्पेश ठाकुर ने पटेलों को आरक्षण की मांग लेकर आंदोलन खडा किया । गुजरात में ओबीसी समाज ७८ फिसदी है । मात्र, यह समाज विभाजित होकर सत्ता पक्ष भाजपा को अनुकूल सिध्द हुआ । महाराष्ट्र में ओबीसी जनसंख्या २३ फिसदी है । इस जनसंख्या  को १९ फिसदी आरक्षण प्राप्त है । ओबीसी में हिस्सेदारी का दावा कुणबी समाज भी कर रहा है । कुणबी की जनसंख्या ८ फिसदी है । किंतु जैसे मराठा समाज विभाजित है वैसे ही कुणबी या ओबीसी समाज विभाजित है । एकसंध समाज के नेतृत्व का कोई चेहरा नही । इसी कारण राजसत्ता में समाज का प्रभाव नही । महाराष्ट्र की राजनीति में हमेशा कुणबी, आदिवासी, कोली और बंजारा समाज का उपयोग चुनाव में किसी राजकीय नेता के विजय या पराजय के लिए किया गया है । सत्ता में हिस्सेदारी या आरक्षण का लाभ मात्र कोसो दूर रहा है ।

आखिर कार महाराष्ट्र भिन्न है

गुजरात चुनाव के बाद महाराष्ट्र के जाती और सामाजिक समीकरणों का चुनावी लाभ हेतु अभ्यास करे तो मराठा, कुणबी, कोली, आदिवासी समाज को एकत्रित बांधने वाला चेहरा फिलहाल सामने नही है । इस कारण विभाजित समाज गुजरात जैसा द्वि पक्ष राजकारण स्वीकृत नही कर सकता । गुजरात के चुनावी तोलकाटे पर महाराष्ट्र के राजनीति का अनुमान नही लगाया जा सकता।

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